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हिंदी भाषा का पतन

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                                        हिंदी भाषा का पतन
 
आज जो हम हिंदी भाषा पढ़ रहे हैं उसका उद्गम आज से करीब १५० वर्ष पहले हुआ. आज की हिंदी में संस्कृत, उर्दू और फारसी का मिश्रण है. १८९३ में वाराणसी शहर में काशी  नागरी  प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई जिसने हिंदी भाषा के विकास के लिए काफी काम किया. उसमे भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वानों ने हिंदी भाषा के सर्वांगीण विकास के लिए काफी काम किया. १९ वीं शताब्दी के अंत में और २० वीं शताब्दी की शुरुआत में ये कार्य किया गया. २० वीं शताब्दी  के आते आते नए नए लेखक और कवि इसके प्रभाव में आने लगे और अपनी क्षमता अनुसार साहित्य सृजन करने लगे. कहानीकारों में मुंशी प्रेमचंद प्रमुख थे तो नाटककार के रूप में पंडित जयशंकर प्रसाद अग्रणीय थे. कवियों में कई लोग सामने आये ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत मणि त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा इत्यादि. ये सभी लोग परोक्ष या अपरोक्ष रूप से काशी नागरी प्रचारिणी सभा के हिंदी विकास कार्यों से प्रभावित थे और इन सभी ने अपनी अपनी तरह से हिंदी भाषा के विकास में अपना भरपूर योगदान दिया. ये सब करते करते पांच दशक निकल गए और १९४७ में भारत अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद हो गया. चूंकि हमलोग गुलाम थे इसलिए हिंदी के विकास पर उतना ध्यान सरकारी तौर पर   नहीं दिया गया. उत्तर प्रदेश में अंग्रेज़ी और उर्दू ही सरकारी महकमों में ज्यादा चलती थी. मुंशी प्रेमचंद ने भी साहित्य सृजन की शुरुआत उर्दू कहानियों से की. उनकी पहली कहानी ‘संसार का सबसे अनमोल रतन’ उर्दू में ही थी.
 
जब  आज़ादी मिली तो महात्मा गाँधी की इच्छा थी कि सरकार हिंदी के जितने भी मूर्धन्य विद्वान् उस वक़्त उपलब्ध हैं, उनको सरकारी खर्चे पर नियुक्त करके हिंदी भाषा को तकनीकी तौर पर और मज़बूत बनाया जाए जिससे आम जनता की अंग्रेजी पर निर्भरता धीरे धीरे समाप्त हो जाए. पर राष्ट्र का दुर्भाग्य था कि आज़ादी के चन्द महीनों बाद ही महात्मा गाँधी नहीं रहे और उनका सपना अधूरा रह गया. राष्ट्र के सामने गांधी जी के बाद जवाहरलाल नेहरु ही एक ऐसी शख्सियत थे जो भारतीय जनमानस के सरताज थे. नेहरु जी, जैसा कि सब जानते हैं, उनकी उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी और उनपर अंग्रेजियत का काफी प्रभाव था. इसलिए उन्होंने गाँधी जी के सुझावों पर ध्यान नहीं दिया. उनके समय में हिंदी साहित्यकारों ने अपने बलबूते पर जो कुछ भी किया उसको उन्होंने रोका नहीं पर सरकारी तौर पर कुछ ऐसा भी प्रयास नहीं किया कि हिंदी को प्राथमिकता देकर उसका विकास किया जाए. 
 
नेहरु जी ने जब देश की बागडोर अपने हाथों में ली तो उत्तर भारत में तो हिंदी का बोलबाला था, पर दक्षिण भारत में क्षेत्रीय भाषाओँ चलन था. उसकी वजह से अंग्रेजी ही एक ऐसी भाषा हो गयी जो सबको समझ में आ सकती थी. नेहरु जी ने आज़ादी के नौ वर्षों बाद, १ नवम्बर १९५६ को  ‘भाषा राज्यों’ की स्थापना की मसलन कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि. इस वजह से दक्षिण राज्यों में हिंदी का प्रचार प्रसार मुश्किल हो गया. तमिलनाडु ने तो हिंदी भाषा के विरुद्ध ही मुहीम चला रखी है. भारतीय संविधान में भी हिंदी भाषा की स्तिथि स्पष्ट नहीं है.
 
इधर भारत में तकनीकी विकास की वजह से जन साधारण में टीवी का काफी प्रचार हो गया. आठवें दशक से धीरे धीरे टीवी ने रेडियो का स्थान लेना शुरू कर दिया. नवें दशक तक तो टीवी कार्यक्रम भारत सरकार ही नियंत्रित करती थी, तो उसमे हिंदी की ज्यादा अवहेलना नहीं की गयी. लेकिन १९९१ में विश्व पटल पर एक ऐसी घटना घट गयी जिसने आने वाले समय में प्रचार माध्यम में क्रांति ला दी. १९९१ की  शुरुआत में खाड़ी युद्ध छिड़ गया जिसको पूरे विश्व ने टीवी पर देखा. घर बैठे बैठे लोगों ने युद्ध को टीवी पर देखा. तो भारतीय जनता इसके प्रभाव  से   कहाँ  बच   पाती. उसके बाद धीरे धीरे प्राइवेट चैनलों ने अपनी पैठ जमा ली.   उसमे हिंदी के कार्यक्रम तो आते हैं पर जन साधारण के सामने हिंदी भाषा का जो रूप प्रस्तुत किया गया वो बम्बईया भाषा थी जो व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध हिंदी नहीं कही जा सकती. उदहारण के लिए गुजराती लोग ‘अपना’ की जगह पर ‘मेरा’ प्रयोग करते हैं, मसलन मैं  ‘मेरे घर’ जा रहा हूँ , मैं ‘मेरा पैसा’ खर्च कर रहा हूँ, इत्यादि जो प्रांतीय भाषा का प्रभाव लगता है. उसके पहले साठ के दशक से  हिंदी  सिनेमा  में  
बम्बईया हिंदी का प्रयोग काफी था जन साधारण को खराब हिंदी सिखाने के लिए. ऐसी कोई सरकारी नीति नहीं बनी जो भाषा पर नियंत्रण रखे. आजकल हिंदी सिनेमा में में कला और वास्तविकता के नाम पर हिंदी भाषा के वर्जित शब्दों का प्रयोग होने लग गया है जिसे हम आप परिवार में सुनना पसंद नहीं करते और इसकी वजह से परिवार के साथ फिल्म देखना भी मुश्किल हो जाता है. पर सेंसर बोर्ड कला और वास्तविकता के नाम पर इन हिस्सों को नहीं काटते हैं और पूरी की पूरी फिल्म आम जनता के सामने आ जाती है. बेनडिट  क़ुईन, गुलाल,  ओंकारा ऐसी फिल्मों के ज्वलंत उदाहरण हैं. इन सबके चलते और चूंकि जैसा मैंने पहले लिखा है की हिंदी तकनीकी दृष्टि से उतनी उन्नत भाषा नहीं रही, जनता की निर्भरता अंग्रेजी पर ही बनी हुई है. बच्चों के दिल-ओ-दिमाग में भी ये बैठा दिया गया है कि हिंदी जानने से नौकरी नहीं मिलेगी, अंग्रेजी का ज्ञान नितांत  आवश्यक है.
 
अगर हिंदी भाषा को बचाना है तो सरकारी नीतियों में आमूल परिवर्तन लाना होगा. जो हिंदी के मूर्धन्य विद्वान् हैं उनको सरकार कि तरफ से प्रोत्साहन मिलना चाहिए जिससे वे जन मानस में हिंदी के विकास के लिए कार्य कर सकें. आज हालत इतनी खराब है कि आजकल के  बच्चों और कुछ बड़ों को भी हिंदी की वर्णमाला और गिनती नहीं का ज्ञान नहीं है. हिंदी भाषाओँ पर क्षेत्रीय भाषाओँ का ज्यादा प्रभाव दिखता है. मसलन बंगाली में केवल पुल्लिंग का प्रयोग होता है जैसे लड़का आ रहा और लड़की भी आ रहा है. ‘रही’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ. हमारी शिक्षा पद्धति में भी दोष है. कक्षा ५ तक के बच्चों को अंग्रेजी और उर्दू के उन शब्दों का प्रयोग करने की मनाही नहीं है जिनको हिंदी भाषा ने स्वीकार कर लिया है पर उन्ही शब्दों का प्रयोग छठी कक्षा में आकर निषिद्ध हो जाता है. उसकी वजह से बच्चों को हिंदी से घबराहट होने लगती है.घर में तो हिन्दुस्तानी का ही प्रयोग होता है. भाषा के प्रति प्रेम अनायास ही नहीं हो सकता है. हिन्दुस्तानी से हिंदी की तरफ रूपांतरण को सहज रूप से छात्र छात्राओं के सामने प्रस्तुत करना चाहिए. ये सब अगर किया जाए तब ही बच्चों के मन में हिंदी भाषा के प्रति प्रेम जागेगा. इन सब चीज़ों पर विद्वानों और शिक्षाविदों को गौर करना चाहिए. 
 
अगर ये सब जल्दी ही नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा जन साधारण के लिए बहुत दूर हो जायेगी, लुप्त हो जायेगी. गाँधी जी का सपना कि ‘हिन्दुस्तानी’ का विकास होना चाहिए, उसको अगर सच करना है तो उपरोक्त सुझावों को अमली जामा पहनाना होगा. 
 
 
 
 
 – ए. के. श्रीवास्तव
   ई – ५, नोट मुद्रण नगर,
   मैसूर – ५७०००३, कर्नाटक
   दूरभाष – ०८२१-२५८१९०१
 

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